Deepak Pachpore

हिंदी पत्रकार संघ का ट्राईडेंट में कार्यक्रम पर दीपक पाचपोर की रिपोर्ट

वैसे तो अब अपुन सक्रिय पत्रकारिता में नहीं हैं, और न ही मुंबई की पत्रकारिता या उसके जीवन से अपना कोई बहुत लेनादेना रह गया है। फिर भी 1987 से लेकर 2002 तक वहीं की मिट्टीपानी से अपना गुजारा हुआ है। उस शहर की पत्रकारिता ने मुझे दृष्टिसम्पन्न किया है। जीवन और दुनिया को देखने का नजरिया (चाहे वह सही है या गलत, अच्छा या बुरा) मुझे सही मायनों में यहीं पर मिला। पहले की बंबई और अब की मुंबई सही पूछें तो पूरी दुनिया का एक मिनिएचर है। जो दुनिया में है, वह यहां भी है और जो यहां नहीं है, वह कहीं भी नहीं है। इसलिए मैं चाहे पिछले डेढ़ दशको से मुंबई में नहीं हूं, लेकिन मेरे अंदर अब भी एक मुंबई बसा हुआ है। बेदखल नहीं हुआ है। वहां की बातें, वहां के अच्छेबुरे हादसे, घटनाक्रम मेरा ध्यान बरबस खींच लेते हैं। चाहे उनसे मेरा सीधा सरोकार हो या न हो। 

मुंबई में ही रहते और हिंदी पत्रकारिता के दौरान यह तो साफ हो गया था कि चौबीसों घंटे पेटी की भाषा बोलने वाली और खोखे का खेल खेलने वाली मायानगरी में हिंदी का क्रमांक चौथे पर हैअंगरेजी, मराठी, गुजराती के बाद। भाषा का भी और उसके बोलने वालों का भी। हालांकि इसी शहर में हिंदी की फिल्में बनती हैं, हिंदी के विज्ञापन बनते हैं और हिंदी साहित्य व पत्रकारिता को मददगार के रूप में देश का सबसे समृद्ध समुदाय मारवाड़ियों का यह राजस्थान के बाद दूसरा घर भी है। उनकी कर्मभूमि तो है ही। चौथे नंबर पर खड़े रहने के कारण सरकार हो या विज्ञापनदाता, हिंदी तक पहुंचतेपहुंचते उनके कोष रीते हो जाते हैं। कारण है, हिंदी की और उसके बोलने वालों की मुंबई में वैसी धाक नहीं रही। 1990-91 के बाद अनेक ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अभावों, उपेक्षाओं और उपहासों के बाद भी नईं ऊंचाइयां प्रदान कीं। नई आर्थिक उदार नीति ने बड़ी कंपनियों के रास्ते भारत में प्रशस्त किए और भारतीय कंपनियों का विस्तार किया। इससे पहले से संपन्न मुंबई और भी समृद्ध हो गई। विज्ञापनों का परिमाण बढ़ा, उसके कारण कई छोटेबड़े अखबार खुलते गए। राजनीति पहले से और भी फायदेमंद पेशा बन गई जिससे अधिकृत और अनधिकृत तौर पर धनप्रवाह अन्य भाषाओं के अखबारों के साथ हिंदी प्रकाशनों तक पहुंचने लगा। हिंदी की सूखी धरती सिंचित होने लगी। उत्तर भारतीयों की संख्या में ईजाफा हुआ, उनकी राजनैतिकसामाजिक स्तर पर अवहेलना किसी भी संगठन के लिए मुश्किल होती गयी। वहां की रामलीलाएं संगठित होने लगीं, जिनकी छत्रछाया में शहर की सबसे बड़ी जनसंख्या बन चुके हिंदीभाषी संगठित होते गए। रामलीलाओं के अलावा छठ के माध्यम से हिंदीभाषियों ने अपनी ताकत दिखानी शुरू की। मराठी की राजनीति करने वाली शिवसेना जैसी पार्टी को भी हिंदीभाषियों की उपेक्षा करना कठिन हो गया। यहां तक कि शिवसेना की गुंडागर्दी के खिलाफ ठीक उसके मुख्यालय के सामने जब पत्रकारों द्वारा धरना दिया गया, उसकी अगुवाई एक तरह से हिंदी पत्रकारों और उनके समाचारपत्रों ने ही की। इसी दौरान मुंबई हिंदी पत्रकार संघ की भी स्थापना हुई। किसी भी हिंदीभाषियों के संगठन की तरह संघ भी मनमुटावों, वैमनस्यता, अखबारों की आपसी दुश्मनी भुनाने की प्रक्रिया की भेंट चढ़ गया। पहले चुनावों से लेकर ही मुंबई का हिंदी पत्रकारिता का परिवेश विषाक्त हो चला, फिर भी उसे कम से कम यह श्रेय तो जाता है कि उसने किसी भी नेता या राजनैतिकसामाजिक संगठन का मुखपत्र या जेबी संस्थान बनने से इंकार कर दिया। दूसरे ही चुनाव के दौरान कुछ साथियों के माध्यम से संघ की गतिविधियों में मुंबई के एक नामी हिंदीभाषी बिल्डर ने चहलकदमी करने की कोशिश की थी। तब तो उन्हें पर्याप्त सफलता नहीं मिली, पर पत्रकारों और पत्रकारिता को अपनी जेब में रखने का उन्हें ऐसा चस्का लगा कि वे कुछ समय बाद स्वयं ही अखबारों के मालिक बन बैठे। अब उनका प्रकाशन अपने धंधे और राजनैतिक दल के हितों का बखूबी पोषण कर रहा है। खैर, यह दीगर बात है। पर यह बताना जरूरी है कि निहायत खाली कोष के बावजूद मुंबई हिंदी पत्रकारिता संघ के इतिहास का वह पन्ना अभी भी सबसे चमकदार है, जब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की भेजी 5 लाख रुपये की राशि लेने से संघ ने इंकार कर दिया था क्योंकि उस वक्त उनकी सरकार पर उत्तराखंड राज्य की मांग करने वाले आंदोलन को बेरहमी से कुचलने और आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार के आरोप लगे थे। 

विपन्नता से ताकत बटोरने की इस यात्रा के दौरान भी हिंदी पत्रकारिता को यह श्रेय जाता है कि उसने खुद को मुंबई की चमकदमक से अपने आप को सामुदायिक तौर पर बचाए रखा और समूह के रूप में वह कभी उन छोटेबड़े राजनैतिकसामाजिक संगठनों की जेब में नहीं बैठी, जिसके लिए अनेक लोगों ने कोशिश की। निजी तौर पर चाहे कुछ पत्रकारों ने अपनी आर्थिक और राजनैतिक हैसियतों को बढ़ाया, पर समग्र हिंदी पत्रकारिता ने स्वयं को इससे दूर रखा था। इसका कारण शायद यह हो कि तबतक इस शहर की अखबारनवीसी को अपनी फ़कीरी पर फख्र रहा। राजबहादुर सिंह, नारायण दत्त, गिरिजा शंकर, गणेश मंत्री, लल्लाजी, राजन गांधी, सतीश वर्मा, मुनीष सक्सेना, राममनोहर त्रिपाठी, विश्वनाथ सचदेव, राहुल देव, प्रदीप सिंह, मनमोहन सरल, अनुराग चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने मुंबई की पत्रकारिता की आंखों को शहर की रईसी से चुंधियाये जाने से बचाए रखा। ये सारे नाम अपने आप में संस्थान रहे, लेकिन उनका मन गरीबी में लगता था (ऐसा भी नहीं कि उन्हें कोई खाने के लाले पड़े हों)। अपनी बेहद प्रभावशीलता और पौवे के बावजूद वे उन स्थानों से अक्सर दूर रहा करते थे जो हमारी नवधनाढ्य दुनिया के पहचान स्थल हैं। पंचसितारा होटल, आलीशान क्लब, जिमखाना, रईसों के अड्डेइनसे दूर ये स्वनामधन्य पत्रकार अपना कर्म करते थे। पेशागत आवश्यकताओं के चलते चाहे वे ऐसी जगहों पर जरूर जाते रहे होंगे, पर वहां उनकी लंबी और नियमित हाजिरी कभी नहीं देखी गई। सामूहिक और सामुदायिक तौर पर तो बिलकुल ही नहीं, खासकर जब वे किसी कार्यक्रम आयोजन का स्थल निर्धारित करने की स्थिति में होते हों।

इसलिए जब मुंबई हिंदी पत्रकार संघ का 1 जनवरी को भव्य कार्यक्रम मुंबई ही नहीं, देश के सबसे महंगे होटलों में से एक ट्राइडेंटमें आयोजित किये जाने की मुझे सूचना मिली, वह मुझे सदमा देने लायक बातमी थी। ऐसा नहीं कि मैं हिंदी पत्रकारों को हमेशा सुदामा के गेटअप में या किसी सर्वोदयी कार्यकर्ता की तरह झोला लटकाए हुए गांवगांव घूमता हुआ देखना चाहता हूं। मेरा मानना है कि पत्रकार भी अच्छा जीवन जियें, ऐसे वक्त में जब दुनिया भर के व्यवसायों में काम करने वाले लोगों की तनख्वाहें व भत्ते बढ़ते जा रहे हों, हमारे पत्रकार भी सुविधा का जीवन व्यतीत करें। पर मैं चाहता हूं कि व्यक्तिगत तौर पर वे ऐसे होटल में अपनी जेब से खर्च करने के लायक सक्षम बन सकें। यह तो मानना होगा कि हर व्यक्ति का एक निजी और सामूहिक जीवन होता है। जब तक पेशे पर और आपके प्रदर्शन पर वैयक्तिक जीवन का असर न हो, किसी के किसी भी प्रकार से रहने पर कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। यह दौर सामान्य नागरिक और देश के लिए बड़ी ही आर्थिक कठिनाइयों का काल है, जिसमें हम समाज के हर जिम्मेदार व्यक्ति और तबके से उम्मीद करते हैं कि वे सादगीपूर्ण और मितव्ययिता का जीवन जियें। उनसे उम्मीद ज्यादा होती है जो समाज को रास्ता दिखाने के जिम्मेदार हैंअपने व्यवसाय के माध्यम से और अपने व्यवहार के भी जरिए।  

कोई कह सकता है कि पांचसितारा होटल में कार्यक्रम कर दिए जाने से आखिर क्या होता है? हां, काफी कुछ होता है। यह एक रेखा खींचने की तरह है। भावी कार्यक्रमों का आपने एक न्यूनतम स्तर तय कर दिया है। अब आपको हर बार ऐसे ही लकदक कार्यक्रम कराने होंगे। उनके लिए प्रायोजक ढूंढ़ने होंगे। चूंकि आपको हर चीज की कीमत चुकानी होती है, हिंदी पत्रकारिता जगत उस प्रायोजक के हस्तक्षेप को आमंत्रित करता रहेगा। ये प्रायोजक ही आगे जाकर संघों और संगठनों के नियामक बन जाते हैं। ऐसे स्थल शायद अंगरेजी, गुजराती, पंजाबी जैसे पत्रकारों के संगठनों के लिए उपयुक्त हो सकते हैं क्योंकि उनके पाठक उसके अनुरूप ही समृद्ध होते हैं और उनकी अपेक्षा ऐसे ही आयोजनों की रहती है। अनेक ट्रेड जर्नल्स भी इन महंगे होटलों में अपने कार्यक्रम करते हैं जो उनके ग्राहकों को देखते हुए अनुचित नहीं कहे जा सकते।

मुंबई अरबपतियों का गढ़ है, वहां ऐसे कार्यक्रमों के लिए पैसे जुटाना पत्रकारों के लिए कठिन नहीं, पर मेरे विचार से हिंदी पत्रकारिता की वह जगह नहीं है क्योंकि हमारी यह विधा भारत के बहुसंख्य मेहनतकशों, सर्वहारा और महंगाईबेरोजगारी से टूटी हुई अवाम की वाणी है। वह आज भी पत्रकारों और साहित्यकारों से सादगी और सरलता के आचरण की उम्मीद करती है। यह हमारी शायद नैतिक जिम्मेदारी भी है कि हम लोगों को बताएं कि हम सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोगों से जिस तरह का आचरण चाहते हैं, हम खुद भी उस पर चल रहे हैं। 

इसलिए मुंबई हिंदी पत्रकार संघ का यह विचलन मुझे विचलित कर देने वाला है।

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