पुस्तक समीक्षा : मुंबई पुलिस के स्याह चेहरे और सच्ची घटनाओं का वृत्तांत है ‘क्रिमिनल्स इन यूनिफॉर्म’

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अकेला

पुलिस इंस्पेक्टर राजेंद्र चव्हाण तब पुलिस आयुक्त रणजीत शर्मा (आर. एस. शर्मा) के पर्सनल रीडर हुआ करते थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि यार ये संजय सिंह को समझाओ ना। साहब (आर. एस. शर्मा) को बेवजह बदनाम कर रहा है। मैंने पूछा क्या हुआ ? उन्होंने बताया न्यूज़ चला रहा है कि साहब स्टैम्प पेपर (तेलगी) घोटाले में शामिल हैं। मैंने कहा देखता हूँ। मैंने संजय सिंह से कुछ नहीं कहा। दरअसल मेरा स्तर ही नहीं था कि संजय सिंह को खबर चलाने या रोकने के लिए बोल सकूं। मैंने ज़ी न्यूज़ देखना शुरू किया। संजय सिंह ने न्यूज़ ब्रेक की थी कि पुलिस कमिश्नर आर. एस. शर्मा तेलगी घोटाले में शामिल हैं। शुरुआत में तेलगी (स्टैम्प पेपर) घोटाला मेरी समझ में ठीक से नहीं आ रहा था। संजय सिंह ने जब आर. एस. शर्मा का नाम उछाला तो मेरी भी दिलचस्पी बढ़ी। मैंने संजय सिंह की सारी (ज़ी) न्यूज़ देखनी शुरू की। और फिर मैंने भी तेलगी घोटाले में कुछ स्टोरीज ब्रेक की। तब मैं नवभारत में था।

क्रिमिनल्स इन यूनिफॉर्म के विषय में लिखने से पहले मैं भी आज एक वाक्या ब्रेक कर दूँ। आर. एस. शर्मा नागपुर के भी पुलिस कमिश्नर थे। शर्मा ने नागपुर से एक पत्रकार को मुंबई बुलाया। उसे आज़ाद मैदान पुलिस क्लब में ठहराया। उसकी सेवा के लिए पुलिस की गाड़ी दी। पुलिस जवान दिए। एसआईटी ने जो रिपोर्ट तैयार की थी उस पत्रकार को दी। यह जानने के लिए कि वे उसमें फंसेंगे कि नहीं। मसलन गिरफ्तार होंगे कि नहीं। रात-दिन पढ़ने के बाद पत्रकार ने मुझसे कहा कि एसआईटी रिपोर्ट में दम नहीं है। शर्मा को मैंने बता दिया है कि वे गिरफ्तार नहीं होंगे। मैंने उस पत्रकार से कहा कि मेरे पास एसआईटी की रिपोर्ट नहीं है लेकिन मेरा दावा है कि शर्मा गिरफ्तार होंगे। 100 टक्का। 1000 टक्का। और सेवानिवृत्ति के एक दिन बाद आर. एस. शर्मा गिरफ्तार हो गए। संजय सिंह की ब्रेकिंग स्टोरी सच हो गई। मेरा भी सोर्स सच निकला।

संजय सिंह ने उसके बाद एक से एक न्यूज़ ब्रेक की। ख्वाजा यूनुस प्रकरण भी उनकी बेहतरीन ब्रेकिंग स्टोरी थी। उस कहानी में भी यही सचिन वाझे खलनायक था। संजय सिंह ने स्टोरी तो ब्रेक की ही थी उस कहानी को अंजाम तक पहुँचाया भी था।

अमूमन प्रत्येक क्राइम रिपोर्टर सच्चाई से वाकिफ रहता है लेकिन कहने या छापने की डेयरिंग नहीं कर पाता। कुछ उसकी निजी कायरता, कुछ पुलिस ऑफिसर्स की चापलूसी की भावना। संजय सिंह में दोनों बातें नहीं हैं। डेयरिंगबाज़ के अलावा संजय सिंह एक बेहतरीन इंसान भी हैं। क्रिमिनल्स इन यूनिफार्म (सीआईयू) टाइटल ही इसका सबूत है। सीआईयू मुंबई पुलिस के क्राइम ब्रांच की एक यूनिट है। इसी अँधेरी यूनिट में बैठकर प्रदीप शर्मा, दया नायक, सचिन वाझे और प्रकाश भंडारी जैसे अधिकारियों ने मुंबई को बन्धक बना लिया था। सीआईयू गृह विभाग और पुलिस हेडक्वार्टर बन गया था। इन अधिकारियों ने अपने आपको अपरिहार्य साबित कर दिया था। और अब अंत सबके सामने है।

क्रिमिनल्स इन यूनिफॉर्म पुस्तक संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी ने जिस भावना से लिखी है वह बिलकुल परिलक्षित होती है। भाषा इतनी सरल कि जैसे कोई जहीन अध्यापक गणित का कठिन से कठिन प्रश्न उदाहरण दे दे कर सरल बना देता है। मुकुंद कुले ने बेहतरीन अनुवाद किया है।

पत्रकारिता का बुनियादी कर्म/धर्म रिपोर्टिंग है। संजय सिंह ने इस कर्म/धर्म को बेहतरीन ढंग से किया/निभाया है। क्रिमिनल्स इन यूनिफॉर्म में भी इसके सबूत मिलते हैं। संजय सिंह ने पुस्तक में कहीं-कहीं गालियों का प्रयोग किया है। बहुत ही नैचुरल तरीके से। जैसे हमारे सामने ख़ास दोस्त गालियां बुदबुदाकर बातें करते हैं। किस्सागोई की शैली बहुत उम्दा है। निजी जीवन के कुछ अंश का उल्लेख कर संजय सिंह ने इस किताब की तरह अपने जीवन को भी खुली किताब बना दिया है।

मुकेश अम्बानी के महल एंटीलिया के सामने विस्फोटक रखने की घटना, कार व्यवसायी मनसुख हिरण की हत्या का मामला या प्रदीप शर्मा, सचिन वाझे सहित सबकी गिरफ्तारी की घटनाएं मीडिया में छप चुकी हैं। नया कुछ भी नहीं है। लेकिन संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी ने रिपोर्टिंग के अपने निजी अनुभव और कहानी कहने की कला को जिस तरह से प्रस्तुत किया है अद्भुत है।

आज गूगल के समय में कोई भी घटना सहज उपलब्ध है। लेकिन क्रिमिनल्स इन यूनिफॉर्म मुंबई पुलिस के स्याह चेहरे, एंटीलिया विस्फोटक, मनसुख हत्या काण्ड का एक व्यवस्थित, सम्पूर्ण संस्करण है। 246 पृष्ठों की महज ये पुस्तक नहीं, सच्ची घटनाओं का वृत्तांत है। मुंबईकर्स को इसे सिर्फ पढ़ना ही नहीं, सहेज कर रखना भी पड़ेगा।

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