अकेला

घटना -1, तब मैं मिड-डे में था। किसी के साथ, किसी काम से मंत्रालय गया था। जिसके साथ मैं गया था, काम होने के बाद वे ऐसे ही गृह राज्यमंत्री की केबिन में घुस गए। उन्होंने मेरी पहचान गृह राज्यमंत्री से करवाई। गृह राज्यमंत्री ने मेरा नाम सुनते ही कहा कि ‘अकेला तुम पुलिस प्रोटेक्शन ले लो।’ गृह राज्यमंत्री के मुंह से ऐसी बात सुनकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। सुखद इसलिए कि गृह राज्यमंत्री मुझे नाम से जानते हैं और आश्चर्य इसलिए कि वे पुलिस प्रोटेक्शन लेने को कह रहे हैं। मैंने शालीनता से ‘न’ कह दिया। गृह राज्यमंत्री ने प्रश्नवाचक दृष्टि मुझ पर डाली तो मैंने कहा – सर मुझे मुंबई पुलिस पर भरोसा नहीं। और वैसे भी सर मेरा मानना है कि, ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा।’

घटना- 2, तब मैंने एबीआई शुरू कर दिया था। अंडरवर्ल्ड की एक स्टोरी के सिलसिले में मैं एक पुलिस महानिदेशक से मिला। आश्चर्य है कि पुलिस महानिदेशक ने भी कहा कि, ‘अकेला तुम पुलिस प्रोटेक्शन ले लो।’ मैंने फिर वही बात दोहराई कि, ‘सर मुझे मुंबई पुलिस पर भरोसा नहीं।’ महानिदेशक ने कहा कि मैं डीजी हूँ। कुछ बात होगी इसलिए कह रहा हूँ कि पुलिस प्रोटेक्शन ले लो। नहीं तो आर्म्स लाइसेंस ले लो। मैं इश्यू करवा दूंगा। इस बार मैंने अपने दिल की बात उन्हें बताई – सर, जो पुलिसवाला मेरी सिक्युरिटी में रहेगा वही मेरा लोकेशन, डेली रूटीन, उठने-बैठने की जगह को लीक करेगा। दूसरा, आर्म्स लाइसेंस रहने पर पुलिस को तो अच्छा मौका मिल जायेगा मुझे फंसाने का। पुलिस किसी को भी खड़ा करेगी और गन दिखाकर धमकाने की झूठी एफआईआर दर्ज करेगी। सर मेरा मानना है कि -‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा।’

हाल ही में मैंने जब आईपीएस देवेन भारती के अंडरवर्ल्ड के रिश्ते की बात उजागर की तो तीन आईपीएस ने फोन करके बोला- अकेला थोड़ा संभाल कर। ‘छोटा चेतन’ का कोई भरोसा नहीं। इसका कोई ईमान, धर्म नहीं है। हद दर्जे का ….. है। टेक एक्स्ट्रा केयर।

सवाल है कि मैं ये सब अब क्यों बता रहा हूँ। दरअसल सचिन वाझे एन्ड गैंग्स ने जब से ठाणे के कार व्यापारी मनसुख हिरण का कत्ल किया है तब से मन बहुत व्यथित है। क्षुब्ध है। क्राइम रिपोर्टिंग के दौरान मैंने पुलिस विभाग/पुलिसवालों का चेहरा बहुत करीब से देखा है। ये पुलिसवाले सौ-सौ, दो-दो सौ रुपये में बिकते हैं। फिर ये मेरी सिक्युरिटी क्या करेंगे? बहुत पहले एक सीनियर इंस्पेक्टर ने मुझे बताया था कि उनके पुलिस स्टेशन के कॉन्स्टेबल्स, सिपाही सुबह घर से शपथ लेकर निकलते हैं कि वे 1000 रुपये लेकर ही घर जाएंगे। अगर वे किसी कारणवश 950 रुपये ही ‘कमा’ पाए तो 50 रुपये के लिए ओवरटाइम करने लग जाते हैं। 1000 रुपये पूरा करके ही घर जाते हैं।

प्रताड़ना, क्रूरता, अमानवीय व्यवहार, रोब, हफ्ता उगाही, रिश्वत आज पुलिस के पर्यायवाची शब्द बन गए हैं। मैंने 25 साल के सक्रिय क्राइम रिपोर्टिंग में नहीं देखा कि कोई बेक़सूर, ईमानदार, इज़्ज़तदार, परेशान व्यक्ति अपनी फ़रियाद लेकर पुलिस स्टेशन गया हो और संतुष्ट होकर वापस आया हो। ठाणे पुलिस मुख्यालय (ग्रामीण) में एक इंस्पेक्टर हैं व्यंकट आंधले। वे खुद अपनी पहचान में बताते हैं कि असली गुंडा तो पुलिस होती है। वर्दी वाला गुंडा। वे बताते हैं कि वे खुद इतने खतरनाक हैं कि मुरबाड के पास फायरिंग की एक घटना में उन्होंने गुंडे पर मकोका लगाने के बजाय फरियादी पर ही मकोका लगा दिया।

उल्हासनगर में विट्ठलवाड़ी पुलिस स्टेशन के सीनियर इंस्पेक्टर हैं केपी थोरात। हफ्ता कलेक्शन का इन्होंने नया फंडा शुरू कर दिया। आते ही उन्होंने फतवा जारी कर दिया कि वे पूरे साल का हफ्ता एक साथ में लेंगे। महीने-महीने नहीं। लॉकडाऊन में जबकि व्यापारियों के धंधे बंद हैं फिर भी बेचारों ने पूरे साल का हफ्ता कलेक्ट कर हरेश कृष्णानी को दिया। व्यापारियों से कलेक्ट करके सीनियर इंस्पेक्टर को हफ्ता हरेश कृष्णानी ही देता है। फिर कृष्णानी ही डिसाइड करता है कि किसके खिलाफ एफआईआर लेनी है। किसके खिलाफ नहीं लेनी है। किसको गिरफ्तार करना है। किसको छोड़ना है।

बचपन से सब एक डायलॉग सुनते आये हैं कि ‘पुलिस की दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी अच्छी।’ मनसुख हिरण ने तो दोनों करके देख लिया- दोस्ती भी, दुश्मनी भी। परिणाम मौत। हत्या।

किसी शायर ने कहा है कि – ‘दोस्ती जब किसी से की जाए, तो दुश्मनों की भी राय ली जाए।’ सच है कि पुलिस कभी किसी की दोस्त हो ही नहीं सकती। पत्रकार की तो बिलकुल नहीं। पुलिसवाला पत्रकार का सोर्स हो सकता है। लेकिन सोर्स का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता। यहां तो इतने मूर्ख पत्रकार/पुलिसवाले हैं जो पब्लिकली बताते हैं कि फलां पत्रकार/पुलिसवाला मेरा दोस्त है। जबकि ऐसा बोलकर दोनों अपने पेशे के साथ बेईमानी कर रहे हैं।

पुलिस विभाग में ऐसे ही व्यंकट आंधले, केपी थोरात, राजकुमार कोथमिरे, एनटी कदम, अनिल पोवार, मदन बल्लाल, अमर देसाई, प्रकाश भंडारी, नंदकुमार गोपाले, अविनाश धर्माधिकारी, अविनाश अंबुरे, सुनील भारद्वाज, देवेन भारती भरे पड़े हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार में पीएचडी की है। सचिन वाझे तो इनका आदर्श है। मुंबई पुलिस का ब्रांड एम्बेसडर है। ऐसे कितने सचिन वाझों ने कितने मनसुख हिरणों को मारकर समुद्र में फेंक दिया होगा।

जब कोई पत्रकार किसी ‘दोस्त’ पुलिसवाले के बारे में पॉजिटिव न्यूज़ छापता है तो आश्चर्य होता है। तब तुलसीदास की एक चौपाई याद आती है – ‘लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन करि बासा।’

ध्यान से पढ़िए। आर्टिकल को बैलेंस करने के लिए मैंने ऐसा नहीं लिखा कि, ‘ऐसा नहीं है कि पुलिस विभाग में सब पुलिसवाले भ्रष्ट हैं। कुछ ईमानदार भी हैं।’ कारण, मैंने पुलिस विभाग को पत्रकार बनकर देखा है, दोस्त बनकर नहीं। पुलिस विभाग रावण की लंका है और ‘लंका में सब बावन गज के।’

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