अकेला
मुंबई पुलिस के क्राइम ब्रांच की एंटी एक्सटॉरशन सेल जांच कर रही है कि मेरे न्यूज़ पोर्टल अकेला ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन (एबीआई) का फायनेंसर कौन है। मेरी प्रॉपर्टीज़ कितनी और कहाँ-कहाँ है। एक सहायक पुलिस निरीक्षक (एपीआई) को जांच की जिम्मेदारी दी गई है।
मुंबई पुलिस को मैंने लानत इसलिए नहीं भेजी कि वो एबीआई के फायनेंसर और मेरी प्रॉपर्टीज़ की जांच कर रही है। लानत इसलिए भेजी कि मुंबई पुलिस की इंटेलिजेंसी में अब वो दम नहीं रहा। सुनता, पढ़ता और लिखता भी आया हूँ कि मुंबई पुलिस स्कॉटलैंड यार्ड के बाद सबसे बड़ी इंटेलिजेंस वाली पुलिस है। चुटकी बजाते ही बड़े से बड़ा केस साल्व कर देती है। लानत इसलिए भेजी कि तीन महीने बीत गए पर एपीआई अभी तक एबीआई के फायनेंसर का पता नहीं लगा सका।
मेरे चार्टर्ड अकाउंटैंट (सीए) ने मुझसे कहा कि प्रॉपर्टीज़ और इन्कम की डिटेल्स दीजिये। आईटीआर फाइल करनी है। मैंने कहा रुक, मुंबई पुलिस मेरी प्रॉपर्टीज़, इन्कम और एबीआई के फायनेंसर का पता कर रही है। मुंबई पुलिस मुझे लिस्ट देगी तो मैं तुझे बताऊंगा। वही डिटेल्स फाइल करना। सीए इंतज़ार कर रहा है। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ। मुझे भी तो मालूम पड़े कि एबीआई का फायनेंसर कौन है और मेरी प्रॉपर्टीज़ कितनी और कहाँ-कहाँ है।
मुंबई के ऐसे क्राइम रिपोर्टर्स-जिसने भी 26/11 की कवरेज की है-के पास अपनी-अपनी कहानियां हैं। कसाब की गोली सबके कान के पास से गुजरी थी फिर भी जान की परवाह किये बिना वे रिपोर्टिंग करते रहे। ये क्राइम रिपोर्टर्स ऐसा फेंकते हैं जैसे एनआईए, रॉ, सीबीआई, आईबी, एफबीआई और मोसाद सबमें इनके चेले (सोर्स) भरे पड़े हैं। ऐसे तुर्रमखां क्राइम रिपोर्टर्स भी एबीआई के फायनेंसर का पता नहीं लगा पा रहे हैं। इसीलिए इनकी रिपोर्टिंग और सोर्स पर थू है।
एक्चुअली, मिड डे छोड़कर जब से (वर्ष 2014) मैंने एबीआई शुरू किया तब से क्राइम रिपोर्टर्स के सीने पर सांप लोट रहा है। उनको इस बात की बहुत फिक्र है कि एबीआई से उतनी इन्कम नहीं है फिर भी ‘अकेला’ पहले जैसी अकड़ से ही कैसे रहता है। शर्ट की क्रीज़ भी टेढ़ी नहीं होती। और फिर खुद निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि ‘अकेला’ हमारी तरह चिन्दीचोरी नहीं करता। पुलिस की भड़वागिरी नहीं करता। साल में एक ही हाथ मारता है, बड़ा मारता है। ये भी कह लेते हैं कि बिल्डरों के खिलाफ लिखकर अच्छी सेटिंग करता है। अब पत्रकारिता के इन बज़रबट्टुओं को कौन समझाए कि पैसा तब मिलता है जब किसी मामले की खबर न लिखी जाए। मैं तो लिख देता हूँ। लगातार लिखता रहता हूँ। बड़े बिल्डर्स- ओबेरॉय, आरएनए, रुनवाल, हीरानंदानी, लोखंडवाला, लोढ़ा, कोणार्क, रिजेंसी, मोहन ग्रुप- जिनके भी बारे में मैंने लिखा है मुंबई पुलिस के अधिकारी उनके पे रोल पर हैं। मंत्री और नेता उनके स्लीपिंग पार्टनर हैं। अब इन बिल्डरों का स्टेटमेंट लेना चाहिए और पूछना चाहिए कि ‘अकेला’ को तुमने कब और कितना दिया। इन क्राइम रिपोर्टर्स में खुद में इतना दम है नहीं कि वे आईपीएस-कम-गैंगस्टर देवेन भारती और सचिन वाझे गैंग्स के बारे में दो शब्द लिख सकें। इनकी तो इतनी हिम्मत नहीं है कि ये फर्जी इन्कॉउंटर स्पेशलिस्ट्स प्रदीप शर्मा, दया नायक, विजय सालस्कर, रवींद्र आंग्रे, नंदकुमार गोपाले, अविनाश धर्माधिकारी और राजकुमार कोथमिरे जैसे टुच्चे अधिकारियों के बारे में लिख सकें। मैं लिख देता हूँ तो इन पुलिस अधिकारियों को हो या न हो इन क्राइम रिपोर्टर्स के पिछवाड़े में दर्द जरूर होने लगता है।
मुझे एक घटना याद आ रही है। मैं मिड डे में था। मेरे एक सहकर्मी (पद में बड़े, उम्र में छोटे) ने मुझसे कहा कि मुझे लन्दन जाना है। तुम वहां मेरे ठहरने की व्यवस्था करवा सकते हो क्या। दूसरे दिन मैंने उनसे कहा आप जाइये। लंदन एयरपोर्ट पर मेरा आदमी आपको रिसीव करेगा। होटल में ठहराएगा। लंदन में हमेशा आपके साथ रहेगा। रिटर्न में आपको लन्दन एयरपोर्ट छोड़ देगा। किन्तु वे लन्दन नहीं गए। मुझे बाद में मालूम पड़ा कि उनके किसी ‘रिलायबल सोर्स’ ने इन्फॉर्मेशन दी थी कि ‘अकेला’ ने लन्दन में फ्लैट खरीदा है। या किसी गैंगस्टर ने गिफ्ट दिया है। वे तो लन्दन जाने की सिर्फ नौटंकी कर रहे थे। एक्चुअली, वे मेरे मुंह से उगलवाना चाहते थे कि हाँ, हाँ बॉस जाओ लन्दन में मेरे फ्लैट पर रहना।
अब मैं इतना मूर्ख तो हूँ नहीं कि उनको अपने लन्दन के फ्लैट के बारे में बताता। लन्दन के फ्लैट की तरह मैंने ये भी किसी को नहीं बताया है कि मेरा कुलाबा, मलबार हिल, कार्टर रोड, पवई हीरानंदानी में फ्लैट्स और लोनावला में फार्म हाउस है। और ये क्राइम रिपोर्टर्स भी आजतक इसका पता नहीं कर सके।
उल्हासनगर में एक डीसीपी थे सुनील लोहार उर्फ़ भारद्वाज। खानदानी भ्रष्ट अधिकारी हैं। मैंने उनके करप्शन के बारे में एबीआई में लिखा तो उन्होंने एक इंस्पेक्टर घनश्याम पलँगे को असाइनमेंट दे दिया था कि ‘अकेला’ के खिलाफ कम्प्लेनेन्ट खड़ा करो। एफआईआर दर्ज करो। अरेस्ट करो। घनश्याम पलँगे भी अव्वल दर्जे के करप्ट इंस्पेक्टर माने जाते रहे हैं। पुलिस की ड्यूटी छोड़कर वे मेरे खिलाफ कम्प्लेनेन्ट खोजने लगे। एक महीने तक उल्हासनगर और कल्याण में वे भटकते रहे पर कम्प्लेनेन्ट नहीं ढूंढ पाए।
सुनील भारद्वाज की चापलूसी के लिए उल्हासनगर के लुक्खे रिपोर्टर्स स्वयं इसी काम पर लग गए थे। सौ-सौ-पचास-पचास रुपये के लिए गली-गली भटकने वाले ये रिपोर्टर्स भी एक इन्फॉर्मेशन नहीं निकाल पाए कि ‘अकेला’ कहाँ-कहाँ से ‘लेता’ है।
मुंबई के एक्सीडेंटल पुलिस कमिश्नर हेमंत नगराले ने हाल ही में महिला कांस्टेबल विद्या राजपूत से गुपचुप शादी कर ली है। मैं ये खबर बाद में डिटेल्स में लिखूंगा। यहां इसलिए डिस्क्लोज़ कर रहा हूँ कि हेमंत नगराले को गुस्सा आये। बदला लेने की भावना से अथवा मुझे सबक सिखाने की नीयत से वे एबीआई के फायनेंसर और मेरी प्रॉपर्टीज़ का पता जल्दी करवाएं। उस एपीआई को निलंबित करें जो अभी तक एबीआई के फायनेंसर का पता नहीं लगा सका।
नोट : मुंबई पुलिस को एक बात ध्यान रखनी होगी कि एबीआई का फायनेंसर दाऊद इब्राहिम से नीचे नहीं निकलना चाहिए। अन्यथा मैं इसे अपनी तौहीन समझूंगा। सुप्रीम कोर्ट तक मानहानि का केस लडूंगा। कपिल सिब्बल को वकील करूँगा। इसके लिए मुझे भले अपना लन्दन वाला फ्लैट बेचना पड़े।
Has Has ke paagal ho gaya hu. Kya shawl me lapat lapat ke diya hai. Shawl bhi fat gayi. Hehehehe. Salute and hats off to you.
बहुत दिलचस्प स्टोरी